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चुनावी लोकलुभावन वादों पर नियंत्रण की मांग पर बंधे हैं चुनाव आयोग के हाथ

  छत्तीसगढ कौशल न्युज सत्यनारायण पटेल भाटापारा:- विधानसभा चुनाव 2023 को चुनावी लोकलुभावन वादों के घोषणा पत्र के लिये खास तौर पर याद रखा जाय...

 


छत्तीसगढ कौशल न्युज

सत्यनारायण पटेल भाटापारा:- विधानसभा चुनाव 2023 को चुनावी लोकलुभावन वादों के घोषणा पत्र के लिये खास तौर पर याद रखा जायेगा जिसमे नियंत्रण की मांग की गई लेकिन सत्य यही है कि इस संबंध में आयोग की शक्ति सीमित रही वैधानिक तौर पर आयोग इन पर रोक नही लगा सका ,लोकतंत्र के महापर्व के आते ही सभी राजनीतिक दलों को सहसा गरीब मजदूर किसान वर्ग सहित आम आदमी की याद आने लगती है। महिला, युवा, अल्पसंख्यक, झुग्गियों में रहने वाले, अनधिकृत कालोनियों के लोग अहम हो जाते हैं। साढ़े चार साल जिन मतदाताओं की अनदेखी हुई, वे अचानक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वादों में मुफ्त बिजली-पानी, सस्ता अनाज, तेल, गैस, फोन और लैपटाप जैसी हर वह वस्तु समाहित है, जिनसे मतदाताओं का ध्यान आकृष्ट होता है। चुनाव आयोग के पास कई बार ऐसे आवेदन आए हैं, जिनमें इन वादों पर नियंत्रण की मांग की गई, लेकिन सत्य सही है कि इस संबंध में आयोग की शक्ति सीमित है। 

       वैधानिक तौर पर आयोग इन पर रोक नहीं लगा सकता है। वादे मूलत: दो प्रकार के होते हैं। एक, जिनसे लोगों को व्यक्तिगत लाभ हो सकता है और दूसरा, जिनसे समाज का भला होता है । व्यक्तिगत लाभ का अर्थ है किसी के खाते में कुछ राशि डाल देना, जो सीधे तौर पर रिश्वत ही है। यहां तक कि पार्टी या उम्मीदवार की तरफ से मतदाता को एक कप चाय पिलाना भी रिश्वत ही है। ऐसे वादे सत्ताधारी और विपक्ष दोनों तरफ से किए जाते हैं। अंतर यही है कि सत्ताधारी दल के पास सरकारी खजाने का नियंत्रण भी होता है। सब्सिडी का एलान, कीमतों में कटौती (जैसे पेट्रोल गैस की कीमत), नई योजनाएं लाना आदि जैसी घोषणाएं सत्ताधारी दल करते हैं। राजनीतिक दल चुनाव आयोग की तरफ से आचार संहिता लागू होने से पहले ही ऐसी घोषणाएं करने की जल्दबाजी में रहते हैं। आचार संहिता प्रभावी होने के बाद सरकार नई योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती है, लेकिन घोषणापत्र पर आचार संहिता प्रभावी नहीं होती। एक-दो रुपये किलो चावल, कर्ज माफ , समर्थन मूल्य मे वृद्धि 10 से 15 हजार प्रति वर्ष आदि,आदि सब तरह के वादे घोषणापत्र के माध्यम से किए जाते हैं। 

         कई बार इन वादों की व्यवहार्यता पर सवाल भी उठता है, इस मामले में तथ्य यही है कि घोषणापत्र पूरी तरह से वैध हैं, चाहे उनमें चांद तोड़कर लाने का वादा ही क्यों न कर दिया जाए। चुनाव आयोग इस संबंध में कुछ नहीं कर सकता है। यहां तक कि पांच जुलाई, 2013 के अपने एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था कि आरपी एक्ट (जन प्रतिनिधित्व कानून) के तहत घोषणापत्र में किए गए वादों को ‘कदाचार’ की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता है। हालांकि इनसे जनता को प्रभावित करना संभव होता है और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा पर चोट लगती है। इसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को संबंधित दलों के साथ विमर्श करके घोषणापत्र के वादों को लेकर दिशानिर्देश जारी करने को कहा था। चुनाव आयोग के साथ बैठक में ज्यादातर राजनीतिक दलों ने तर्क दिया कि लोकतंत्र के तहत घोषणापत्र में ऐसे वादे करना मतदाता के प्रति उनका अधिकार भी है और कर्तव्य भी। सैद्धांतिक तौर पर चुनाव आयोग ने भी इससे सहमति जताई और इस बात को भी रेखांकित किया कि इनके कुछ अनचाहे परिणाम भी होते हैं। 

      चुनाव आयोग ने 31 जनवरी, 2014 को दिशानिर्देशों का मसौदा जारी कर राजनीतिक दलों की राय मांगी थी। इसमें उम्मीद की गई कि घोषणापत्रों में व्यावहारिक वादे हों और उनमें वादों को पूरा करने के तरीके व वित्तीय जरूरत के बारे में भी बताया जाए। परंतु ऐसा नही हो पाया । उनके घोषणा पत्र से राज्य को होने वाले वित्तीय दुष्प्रभावों पर क्या असर पडेगा यहां राजनीतिक पार्टियों के जहन से दूर रहा उनका मकसद किसी भी तरीके से सत्ता की चाबी हासिल करना देखा गया ।प्रश्न यह है कि लोगों के कल्याण की सारी बातें नेताओं को चुनाव से ठीक पहले ही क्यों याद आती हैं। 

          मतदाताओं को इस बारे में जागरूक होना होगा। विपक्षी दलों और मीडिया को यह प्रश्न उठाना चाहिए कि पिछली बार के कितने वादे पूरे हुए और कितने अधूरे रह गए। अव्यावहारिक वादों को लोगों के सामने लाने का काम विपक्षी दलों का है। सामान्य मतदाता यदि यह न भी समझ पाएं कि वादे कितने व्यावहारिक हैं, तब भी वे यह तुलना कर सकते हैं कि पहले कितने वादे किए गए और कितने पूरे हुए।

राष्ट्रीय पार्टियों के घोषणाओं से हजारों करोड़ की पड़ेगी चोट.. 

     विधानसभा चुनाव में इस बार सत्तारूढ़ कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा दोनों ने ही जनता से जमकर लोकलुभावन वादे किये है प्रदेश में जिसकी किसी भी पार्टी की सरकार बनेगी घोषणापत्र पर अमल करने में बजट का बड़ा हिस्सा खर्च होगा।

प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा ने जनता से बड़े- बड़े वादे किए हैं। इनमें धान की अधिक कीमत, तेंदूपत्ता पर बोनस, महिलाओं को एक निश्चित राशि और रसोई गैस पर सब्सिडी के साथ अन्य घोषणाएं शामिल हैं। कांग्रेस ने किसानों और महिला ,स्व-सहायता समूहों का कर्ज माफ करने का भी वादा किया है। अर्थशास्त्री और प्रदेश की अर्थव्यवस्था को करीब से समझने वाले नौकरशाह भी मान रहे हैं कि इन घोषणाओं पर अमल का सीधा असर प्रदेश सरकार के वित्तीय अनुशासन पर पड़ेगा। प्रदेश का राजस्व व्यय बढ़ेगा। इसकी पूर्ति के लिए सरकार को राजस्व (आय) बढ़ाना पड़ेगा। इसका असर जनता की जेब पर पड़ेगा।

           राजस्व आय के स्रोत बढाने हेतु करो मे वृद्धि की बनेगी संभावना..

          छत्तीसगढ़ में ईधन (पेट्रोलडीजल व अन्य), बिजली, शराब और जमीन के पंजीयन (रजिस्ट्री) पर उपकर या सेस वसूल रही है। सेंट्रल गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) लागू होने के बाद प्रदेश सरकार के पास टैक्स लगाने की गुंजाइश लगभग समाप्त हो चुकी है। ऐसे में प्रदेश सरकार अपना राजस्व बढ़ाने के लिए कुछ जगहों पर उपकर लगा सकती है। बजट के जानकारों के अनुसार सरकार गौण खनिज (रेत, बजरी, साधारण मिट्टी, ग्रेनाईट, कंकड़, इमारती पत्थर, जिप्सम और ईट आदि शामिल है) पर टैक्स बढ़ा सकती है। बिजली और शराब से भी राजस्व बढ़ाने पर सरकार विचार कर सकती है। सरकारी जमीनों को बेचकर भी राजस्व जुटाने का प्रयास कर सकती है सरकार।

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